पैसे की कीमत उसने जानी जिसने उसे कमाया है। क्या समझे वो इन्सा़ उसको जिसने विरासत में पाया है।। महनत करते आदमी के नसीब में कब आराम आया है। वो तो हर वक्त यहीं सोचता क्या इसीलिए मैंने जीवन पाया है।। हर सुबह उसकी इक नई दौड़ है हिसाब जिसका नहीं रख पाता है। रात भी थक जाती अंधेरे में तो पर वो कहां कभी रुक सकता है।। महिने की पहली तारिख को तो वो भी राजा कहलाता है। पर क्यों फिर आता आखिरी दिन जब हाथ खाली सा रह जाता है।। कैसे कोई इन्सा़ ये भी कर देता है खून पसीना वो बाज़ार में बेच देता है। दिल तो उसका भी हर पल धड़कता है फिर क्यों उस दिल के तुकड़े कर बैठता है।। रिंकी ३१/५/२०१८
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दबे से अरमान
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रह गये मेरे अरमान सब दबे से कहीं कुछ अनकहे से कुछ अनसुने से यहीं। दिल में तो सजाये मैंने भी ख्वाब थे कई पर मंज़िल तक ना पहुंचा एक भी कभी।। कभी वक्त बेगाना था कभी हम वक्त से यूं ही चलती गई सांसें हर ठोर से। सपने तो देखें थे हमने भी कई न रास्ता मिला मगर किसी ओर से।। दिल में ही रह जाती है मेरी सभी आशा न समझ पाया कभी कोई मेरी अनकही भाषा। कहने की हिम्मत अगर हमने भी की होती तो हम भी आज जी रहे होते अपनी अभिलाषा।। हर वक्त दबा गए हम अपने सभी अरमान न बिखेर पाए कभी अपने मन की मुस्कान।। कहीं नहीं हम कभी अपना हक जमा पाए चाहे था वो घर पिता का या पिया का मकान।। ये बात नहीं सिर्फ बिते दिनों की ही है हम तो आज भी अरमानों को दबाते हैं। सब बढ़ रहे नई ऊंचाइयों की ओर पर हम आज भी दबे चले जाते हैं।। रिंकी ३०/५/१८