दबे से अरमान

रह गये मेरे अरमान सब दबे से कहीं
कुछ अनकहे से कुछ अनसुने से यहीं।
दिल में तो सजाये मैंने भी ख्वाब थे कई
पर मंज़िल तक ना पहुंचा एक भी कभी।।

कभी वक्त बेगाना था कभी हम वक्त से
यूं ही चलती गई सांसें हर ठोर से।
सपने तो देखें थे हमने भी कई
न रास्ता मिला मगर किसी ओर से।।

दिल में ही रह जाती है मेरी सभी आशा
न समझ पाया कभी कोई मेरी अनकही भाषा।
कहने की हिम्मत अगर हमने भी की होती
तो हम भी आज जी रहे होते अपनी अभिलाषा।।

हर वक्त दबा गए हम अपने सभी अरमान
न बिखेर पाए कभी अपने मन की मुस्कान।।
कहीं नहीं हम कभी अपना हक जमा पाए
चाहे था वो घर पिता का या पिया का मकान।।

ये बात नहीं सिर्फ बिते दिनों की ही है
हम तो आज भी अरमानों को दबाते हैं।
सब बढ़ रहे नई ऊंचाइयों की ओर
पर हम आज भी दबे चले जाते हैं।।

रिंकी
३०/५/१८

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